पुणे विस्फोट के बहाने
केन्द्रीय गृह मंत्रालय द्वारा देश के कुछ शहरों में शहरों में आतंकी हमले की आशंका जताने के बाद भी जिस प्रकार पुणे के एक बेकरी में विस्फोट हुआ उससे वस्तुस्थिति का अंदाजा होता है. इससे स्पष्ट है कि चेतावनी के बाद भी अब तक लोग पूरी तरह सजग नहीं हुए है तथा वे सीखते जरूर है पर हाथ जला लेने के बाद. यह स्थिति निश्चय ही बेहतर नहीं कही जा सकती पर सच्चाई यही है तथा इस पर राजनीतिक लाभ हानि के हिसाब से बयानबाजी करने की बजाए व्यवस्था को और चुस्त एवं प्रभावशाली बनाए जाने पर बल दिया जाना चाहिए.प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने खुद इसे काफी गंभीरता से लिया है तथा मामले की तेजी से जांच के लिए केन्द्र एवं महाराष्ट्र सरकार को समन्वित तथा कारगर कार्रवाई का निर्देश दिया है. जबकि विपक्षी पार्टियां खासकर भाजपा एवं वामदलों ने सरकारी तंत्र की खुफिया जानकारी जुटाने की क्षमता पर सवाल खड़ा किया है. जाहिर है विपक्ष इसके पीछे खुफिया तंत्र की नाकामी मानता है जबकि केन्द्रीय गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने दो टूक कहा कि पूणे विस्फोट के पीछे खुफिया नाकामी नहीं है. वैसे कुछ लोग इसके लिए राज्य सरकार को कटघरे में खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं. उनकी नजर में राज्य सरकार ने खुफिया रिपोर्ट को गंभीरता से नहीं लिया जबकि सरकार का कहना है कि संभावित निशानों पर सुरक्षा उपाय किए गए थे जाहिर है यहां जो कुछ हुआ वह धोखे से रखे गए बम के कारण हुआ. दरअसल सुरक्षा व्यवस्था की अपनी सीमा है. महत्वपूर्ण संबंधित ठिकानों एवं व्यक्तियों की सुरक्षा तो संभव है पर हर समय, हर जगह सुरक्षाबल की व्यवस्था संभव नहीं है. यानि सुरक्षा मामले में सुरक्षाबलों के साथ ही आम जनता की अहम भूमिका है. इसमें सजगता एक अहम मामला है. यदि सभी लोग इस खतरे के प्रति सजग हो तो स्थिति को बहुत हद तक काबू में लाया जा सकता है. लावारिश वस्तुओं को नहीं छूना तथा इसकी सूचना जांच एजेंसियों को देना ऐसी चीज है जिसका पालन हर हाल में किया जाना चाहिए. खासकर जब वह क्षेत्र किसी कारण से खास हो तथा आतंकियों के लिए आसान टारगेट हो. यदि खुफिया सूचना के हिसाब से वह क्षेत्र संवेदनशील हो ऐसे में जिम्मेवारी और बढ़ जाती है. पर दुर्भाग्यवश पूणे में ऐसा नहीं हुआ.
मुंबई के कोरेगांव पार्क स्थित वह बेकरी यहूदी प्रार्थना सभा एवं ओशो आश्रम के कारण भी निशाने पर था. आतंकवादियों के निशाने पर होने के कारण पुलिस ने उस क्षेत्र में जांच की थी. जाहिर है वस्तुस्थिति को भांप आतंकवादियों ने प्रमुख केन्द्र की बजाए बेकरी जैसा आसान लक्ष्य चुना जहां लोग मनपसंद चीजें खाने आते है तथा भीड़-भाड़ के समय लोगों का ध्यान अन्य चीजों की ओर नहीं जाता. आतंकियों का यह अनुमान सही साबित हुआ. पुलिस बड़े लक्ष्य पर निगाह गड़ाए रही तथा आतंकवादियों ने अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण लक्ष्य को अपना निशान बना लिया. ठीक है कि इससे वे किसी बड़ा हादसा का अंजाम देने में कामयाब नहीं हुए पर फिर भी सुरक्षा व्यवस्था में सेंध लगाकर उन्होंने यह दिखा दिया कि वे इसमें सक्षम हैं. जाहिर है इससे अब सुरक्षा व्यवस्था की सारी रणनीति की नए सिरे से समीक्षा करनी होगी तथा व्यवस्था को और चुस्त करना होगा. इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि हर नागरिक इस मामले में जागरूकता का परिचय दे तथा सजग रहे.
विपक्ष अपनी धरदार व प्रभावशाली भूमिका निभाए इससे भला किसी को क्या एतराज हो सकता है. बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह जरूरी भी है. सरकार की कमजोरियों की आलोचना गलत नहीं कही जा सकती पर यह भी जरूरी है कि वह महज रस्मअदायगी नहीं हो तथा महज आलोचना के लिए आलोचना नहीं हो. इसके कारण भारत पाकवात्र्ता को निशने पर लेना सही नहीं होगा.
भाजपा भारत-पाक वार्ता शुरू किए जाने के विरूद्ध है तथा उसने इस मुद्दे पर खुलकर सरकार की आलोचना की है. निश्चत ही यह काफी संवेदनशील मामला है. सरकार इस मुद्दे पर अडिग रही है कि जब तक पाक भारत विरोधी आतंकवादियों के विरूद्ध समुचित कार्रवाई नहीं करता उसके साथ वार्ता बहाल नहीं की जानी चाहिए. यह गलत भी नहीं है पर इस महाद्वीप में आतंकवाद की बढ़ती चुनौतियों को देखते हुए 'डेडलॉकÓ की स्थिति भी बुद्धिमत्ता पूर्ण नहीं मानी जा सकती. चुप बैठकर उस दिन का इंतजार नहीं किया जा सकता जब पाकिस्तान खुद की लगाई आतंकी आग में जलकर खाक हो जायेगा. पाकिस्तान का पतन भारत के लिए कोई राहत की बात नहीं होगी क्योंकि अफगानिस्तान का अंजाम हम सबके सामने है. अत: महज चुप्पी खुद में समस्या का समाधान नहीं है. सारे बिन्दुओं को ध्यान में रखकर ही बात कना बेहतर होगा. ऐसे मुद्दे पर राजनीति करना तो किसी भी तरह से अच्छा नहीं होगा.
आलेख - चदंन कुमार, जमशेदपुर
3 comments:
आपके ब्लाग पर आकर अच्छा लगा। बधाई स्वीकार करें।
February 16, 2010 at 2:31 AMAapkii bat sahii va uchit hai
February 16, 2010 at 11:27 AMis aalekh ke liye dhanyavad
लेखक ने कई महत्वपूर्ण बातो पर प्रकाश डाला है. लेकिन अक्सर होता ये है कि सारा दोष सुरक्षा एजेंसियों और इंटेलिजेंस के माथे डाल दिया जाता है. और सरकार फिर बेशरम होकर आंतकवाद-अनुकूल नीतियाँ बनाने में मशगुल हो जाती है. शर्म की बात है कि केंद्र सरकार कहती है कि राज्य सरकार को इसकी आशंका से अवगत करा दिया था. जबकि राज्य सरकार केंद्र सरकार की बात को सिरे से नकार रही है. शर्म की बात ये है कि केंद्र और महाराष्ट्र दोनों ही जगह कोंग्रेस की सरकार है. फिर भी आपसी तालमेल और चुस्ती का अभाव है. कुशासन का इससे बेहतर उदाहरण क्या होगा?
February 16, 2010 at 7:15 PMआंतकवाद से लड़ने के लिए सबसे जरूरी बात है हमारी नीतियों में बदलाव. एक तरफ तो हम वोटो के लालच में टाडा और पोटा जैसे कानूनों को ख़त्म कर रहे हैं तो दूसरी तरफ आंतकवाद को ख़त्म करने की कसमे खाते हैं!! सिर्फ गाल बजाने से कुछ नहीं होने वाला आज पुणे में हुआ तो कल घिदाराबाद, बंगलौर या अहमदाबाद में होगा. ठोस कार्रवाई और मजबूत क़ानून बनाने जरूरी है. और जेहादियों के महिमा मंडन के अलावा उनकी पैरवी करने वाले मानवाधिकार वादियों और सेलिब्रिटियो पर नकेल कसनी भी जरूरी है. और कम से कम इस कोंग्रेसी सरकार से यह उम्मीद करना बेकार है.
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